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ज्वाल्पा देवी: जहां हर समय ज्वाला के रूप में रहती है विराजमान

देहरादून। देवभूमि उत्तराखण्ड अनन्त काल से ऋषियों मुनियों की तपस्थली रही है, और ऋषि मुनियों ने यहां तप कर ज्ञान और सिद्धियां प्राप्त की हैै। यहां कदम, कदम पर शिवालय, मठ,सिद्धपीठ और सैकड़ों मंदिर विराजमान हैं। इन्हीं में से एक सिद्धपीठ है ज्वाल्पा देवी, जहां माता ज्वाला के रुप मे विराजमान हैं। पूर्वी नयार नदी के तट पर विराजमान यह सिद्धपीठ सदियों से आस्था का केंद्र रही है। मान्यता है कि माता रानी अखंड ज्योति के रूप में यहाँ हर समय विराजमान रहती हैं। । शारदीय और चैत्रीय नवरात्रों में यहां भक्तों की अथाह भीड़ माता रानी के दर्शन को उमड़ती है। यह सिद्ध पीठ जनपद पौड़ी के कफोलस्यूं पट्टी के पूर्व नयार के तट पर राजमार्ग से 200 मीटर की दूरी पर स्थित है । चैत्र और शारदीय नवरात्र में मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना होती है। विशेषकर अविवाहित कन्याएं सुयोग्य वर की कामना लेकर माता के दर पर आती हैं। मंदिर में मां ज्वाल्पा अखंड ज्योती गर्भ गृह में विराजमान हैं। मंदिर का निर्माण 1892 में अणेथ गांव के दत्तराम अंथवाल और उनके पुत्र बूथाराम अंथवाल ने की थी।पौराणिक कथा के अनुसार इस स्थान पर दानवराज पुलोम की पुत्री शचि ने भगवान इंद्र को वर के रूप में पाने के लिए मां भगवती की कठोर तपस्या की थी। शचि की तपस्या से मां भगवती इतनी प्रसन्न हुईं कि उन्होंने शची को दीप्त ज्वालेश्वरी के रूप में दर्शन दिया और उसकी मनोकामना पूर्ण की। माता रानी के ज्वाला रूप में दर्शन देने के कारण इस स्थान का नाम ज्वालपा पड़ा। केदारखण्ड के मानस खण्ड में भी इस स्थान का जिक्र किया गया है। मन्दिर में देवी पार्वती के दीप्तिमान ज्वाला के रूप में प्रकट होने के प्रतीक स्वरूप अखंड दीपक निरंतर प्रज्ज्वलित रहती है। इस प्रथा को यथावत रखने के लिए प्राचीन काल में निकटवर्ती मवालस्यूं, कफोलस्यूं, खातस्यूं, रिंगवाडस्यूं, घुड़दौड़स्यूं और गुराडस्यूं पट्टियों के गांवों से सरसों को एकत्रित कर तेल की व्यवस्था की जाती थी। 18वीं शताब्दी में गढ़वाल के राजा प्रद्युम्न शाह ने मंदिर को 11.82 एकड़ सिंचित भूमि दान की थी, ताकि अखंड दीपक के लिए तेल की व्यवस्था करने के लिए खेत में सरसों का उत्पादन किया जा सके। कहा जाता है कि आदि गुरु शंकराचार्य ने इस सिद्धपीठ में माता की पूजा की थी, तब माता ने उन्हे दर्शन दिए थे। वहीं प्रचलित कथा के अनुसार प्राचीन काल में इसे अमकोटी के नाम में जाना व पुकारा जाता था। कफोलस्यूं, खातस्यूं, मवालस्यूं, रिंगवाड़स्यूं, घुड़दौड़स्यूं, गुराड़स्यूं पट्टियों के गांवों से आने वाले ग्रामीण यहां ठहरते थे। कहा जाता है कि एक बार इस स्थान पर एक कफोला बिष्ट यहां रुक और उज़्ने अपना सामान (नमक से भरे कट्टे) वहां पर रखा और आराम करने लगा। सुस्ताने के बाद जब वह अपने गांव जाने के ले तैयार हुआ और जैसे ही उसने नमक का कट्टा उठाना चाहा लेकिन नमक का कट्टा टस से मस नहीं हुआ। इसके बाद जब उसने कट्टा खोल कर देखा तो उसमें मां की मूर्ति (पिंडी) थी। उसने माता की मूर्ति को कट्टे से निकाला तो कट्टा हल्का हो गया। वह मूर्ति को उसी जगह पर रखकर अपने गन्तव्य की ओर चला गया। उसके बाद एक दिन अणेथ गांव के दत्त राम के सपने में मां ज्वाल्पा ने दर्शन दिए और उस स्थान पर मंदिर बनाने का आदेश दिया। उसके बाद उन्होंने अपने पुत्र के साथ मिलकर मन्दिर का निर्माण किया। यहां पूजा पाठ सदियों से अंथवाल ब्राह्मण करते हैं। मंदिर में यज्ञ कुंड भी स्थित है। माता के मंदिर के आसपास हनुमान मन्दिर, काल भैरव मंदिर, माता काली का मन्दिर और शिवालय भी हैं। यहां पर एक संस्कृत महाविद्यालय भी है, जिसमे सैकडों विद्यार्थी संस्कृत की शिक्षा लेते हैं। श्रद्धालुओं के ठहरने के लिए धर्मशाला भी उपलब्ध है। पहले यहां बलि प्रथा प्रचलित थी, लेकिन अब यह कुप्रथा पूरी तरह बन हो गई है। मंदिर पौड़ी मुख्यालय से करीब 30 किलोमीटर और कोटद्वार से लगभग 72 किलोमीटर की दूरी पर है।

प्रीति नेगी 

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